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साद भाषान्तर :
जह लोहसिला अप्पंपि, बोलइ तह विलग्ग पुरिसस्स । इय सारंभो गुरू, परमप्पाणं च बोलेई ॥१॥
भावार्थ:-जिस प्रकार लोहे की शिला खुद को तथा उसके साथ बंधे हुए पुरुष को डबा देती है उसी प्रकार आरंभी गुरु भी खुद को तथा दूसरों को इस भवसागर में डूबा देता है।
इस प्रकार राजकुमारने जब यक्ष को प्रतिबोधित किया तो वह संतुष्ट हो कुमार पर पुष्पवृष्टि कर संकटकाल में उसको स्मरण करने को कह कर अदृश्य हो गया ।
कुमार यक्ष की सहायता से दुर्जय कलिंग देश के राजा को युद्ध में परास्त कर निष्कंटक राज्य करने लगा। कुछ काल व्यतीत होने पर एक दिन जब विक्रम राजा राजवाड़ी में घूमने निकला तो जाते समय मार्ग में एक श्रेष्ठी के घर महोत्सव होते देख अत्यन्त आनन्दित हुआ परन्तु क्रीडा कर जब वापस लोटा तो उसने उसी श्रेष्ठी के घर परपुरुषों को रुदन करते देख कर किसी से उसका कारण पूछा तो उसने उत्तर दिया कि--
हे स्वामी ! इस श्रेष्ठी के घर पर पुत्र उत्पन्न हुआ था इस से महोत्सव हो रहा था किन्तु जन्म लेने के पश्चात्