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व्याख्यान ५४ :
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भावार्थ:-- स्वर्ण, गार्यो और पृथ्वी आदि का दान करनेवाला पृथ्वी पर सुलभ है, परन्तु प्राणिओं को अभयदान देनेवाला पुरुष इस लोक में दुर्लभ है ।
इस प्रकार कुमार आ साहस देख कर यक्षने कहा कियदि तू जीवहिंसा नहीं करता तो केवल मुझ को प्रणाम करते ही मैं संतुष्ट हो जाउँ । यह सुन कर कुमारने कहा कि- प्रणाम कई प्रकार के होते हैं । उन में से तू किस प्रकार का प्रणाम कराना चाहता है ? प्रणाम के भेद इस प्रकार हैंहास्य प्रणाम, विनय प्रणाम, प्रेम प्रणाम, प्रभु प्रणाम और और भाव प्रणाम । इन पांच प्रकार के प्रणामों से मश्करी या हीलना से जो प्रणाम किया जाता है उसे हास्य प्रणाम कहते हैं, पिता आदि गुरुजनों को जो प्रणाम किया जाता है उसे विनय प्रणाम कहते हैं, मित्रादिक को जो प्रणाम किया जाता है वह प्रेम प्रणाम कहलाता है, राजादिक को जो प्रणाम किया जाता है उसे प्रभु प्रणाम कहते हैं और देव गुरु को प्रणाम किया जाता है वह भाव प्रणाम कहलाता है। तू इन प्रणामों में से किस प्रणाम के योग्य हैं ? यक्षने उत्तर दिया कि- हे कुमार ! तू मुझे अन्तिम भाव प्रणाम कर क्योंकि इस जगत की उत्पत्ति, संहार और पालन तथा संसार से निस्तारण आदि सर्व मेरे हाथ में हैं । यह सुन कर कुमारने कहा कि - हे यक्ष ! प्रथम जब तूं ही भवसागर में डूबा हुआ है तो फिर दूसरों को क्यों कर तार सकता हैं ? क्योंकि -