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व्याख्यान ५४ :
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इस प्रकार सुनते हुए भी कंपायमान कर देनेवाले उस: के पूर्व भव का वृत्तान्त सुनने से इहापोह करते कुमार को जातिस्मरण ज्ञान हो गया, अतः कुमारने मुनि से कहा कि
मिच्छत्तमोहमूढो, जीव तुमं कत्थ कत्थ नह भमिओ। छेयणभेयणपमुहं, किं किं दुरकं न पत्तोसि ॥१॥
भावार्थ:-मिथ्यात्व मोह से मृढ़ बना मेरा जीव कहां कहां नहीं भमा ? (सर्व योनियों में भमा है) और भिन्न भिन्न भवों में छेदनभेदन आदि कौन कौन से दुःख नहीं उठाये ? (सर्व दुःख उठाये हैं )। ___ अतः हे पूज्य ! मेरे पर कृपा कीजिये । संसाररूपी कुँए में से धर्मरूपी रज्जुद्वारा मुझे खींच निकालिये (अर्थात् मेरा उद्धार कीजिये)। यह सुन कर मुनिने दया से द्रवित हो छ भावनाओं युक्त समकित का वर्णन किया जिस से वह समकित सहित श्रावकधर्म को अंगीकार कर अपने नगर को गया ।
एक बार उस यक्षने प्रकट हो कुमार से कहा कि-हे कुमार ! मेरी शक्ति से तेरी व्याधि का नाश हुआ हैं, अतः