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व्याख्यान ५३ वां बलाभियोग नामक अन्तिम आगार
बहूनां हठवादेन, बलाद्वा त्यक्तसेवनम् । एवं बलाभियोगः स्यात्, षड़ेते छिंड़िका मताः ॥१ ॥
भावार्थ:- अनेकों लोगों के हठवाद से अथवा किसी के बलात्कार से त्याग किये हुए का सेवन करना पड़े तो उसे बलाभियोग आगार कहते हैं ।
कई उत्सर्ग मार्ग के स्थित प्राणी ऐसे भी हैं कि जो दूसरों के बलात्कार से भी अपने ग्रहण किये हुए व्रत का त्याग नहीं करते । इस विषय सुदर्शन श्रेष्ठी की कथा प्रसिद्ध है
सुदर्शन श्रेष्ठी की कथा
चम्पापुरी में ऋषभदास नामक श्रेष्ठी रहता था । उसके अर्हद्दासी नामक शीलवती स्त्री थी । एक बार माघ महिने में सुभग नामक शेठ की भैंसे चरानेवाला नोकर शेठ के दोर चरा कर जब सायंकाल को घर को आरहा था तो उसने मार्ग में किसी वस्त्र रहित और शरदी को सहन करते मुनि को काउसग्ग ध्यान में खड़े हुए देखा । उसको देख कर उस मुनि की प्रशंसा करते हुए वह शेठ के घर को लौटा । फिर दूसरे दिन बहुत सबेरे उठ कर शेठ की भैंसे ले कर