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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
मुनिने उस विष को निरुत्तर कर दिया । अन्त में इन्द्रने यह जान कर कि-इसका चित्त क्षोभ नहीं पासकता ब्राह्मण का रूप त्याग कर, अपना स्वरूप प्रकट कर, उनको प्रणाम कर स्तुति करने लगा किअहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो पराजिओ। अहोनिरकया माया, अहो लोहो वसंकिओ ॥१॥
भावार्थ:-अहो ! तमने क्रोध को जीत लिया है, मान को पराजय कर दिया है, माया का तिरस्कार कर दिया है और लोभ को वश में कर लिया है।
आदि अनेक प्रकार से स्तुति कर स्वर्गपति स्वर्ग सिधारा और नमिराजर्षिने अनुक्रम से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षपद को प्राप्त किया ।
प्रत्येकबुद्ध नमिराजर्षिने शक्र की युक्तियों से भी धर्म का त्याग नहीं किया अतः ज्ञातासूत्र में श्रीमहावीरस्वामीने भी उनकी प्रशंसा की है । वह राजर्षि हमे सुख प्रदान करें। इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे द्विपञ्चाशत्तम
व्याख्यानम् ॥ ५२ ॥