________________
व्याख्यान ५२ :
: ४६९ :
भावार्थ:- मैं सुख से रहता हूँ और सुखपूर्वक जीवननिर्वाह करता हूँ क्योंकि मेरा कुछ नहीं हैं । मिथिलानगरी जलती है तो उससे मेरा क्या प्रयोजन १ स्वार्थाय यतते सर्वस्तं विना दुःखमश्रुते । मयापि साध्यते स्वार्थस्तस्मान्निर्ममचेतसा ॥२॥
भावार्थः – सर्व प्राणी अपने स्वार्थ के लिये यत्न करते हैं क्योंकि बिना स्वार्थ की सिद्धि के दुःख प्राप्त होता है, अतः मैं भी ममता रहित चित्त से मेरा स्वार्थ (आत्मा का अर्थ ) ही साधता हूँ ।
शक्रेन्द्रने फिर कहा कि - हे मुनि ! सोना, रुपा, मणि आदि से भंडारों की वृद्धि कर फिर व्रत ग्रहण करना चाहिये । इस पर नमि राजर्षिने उत्तर दिया कि - सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वय भवे, सियाह केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि,
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥ १ ॥ भावार्थ:- सुवर्ण तथा रूपे के कैलास पर्वत सदृश - असंख्य पर्वत हों तो भी लुब्ध पुरुष को संतोष नहीं होता क्योंकि इच्छा आकाश सदृश अन्त रहित है ।
इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में कहीं अनेक युक्तियों द्वारा