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व्याख्यान ५४ :
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सुदर्शन के सदृश जो बलाभियोग से भी स्वधर्म में दृढ़ रहते हैं वे सद्दर्शनद्वारा जगत में प्रधान होकर अल्पकाल ही में उत्कृष्ट संपत्ति को प्राप्त करते हैं ।
इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे त्रिपञ्चाशत्तमं व्याख्यानम् ॥ ५३ ॥
व्याख्यान ५४ वां
समकित की छ भावनायें
मूलं द्वारं प्रतिष्ठान - माधारो भाजनं निधिः । द्विविधस्यापि धर्मस्य, षडेता बोधिभावनाः ॥ १ ॥
भावार्थ:- मूल, द्वार, प्रतिष्ठान, आधार, भाजन और निधि ये छ दोनों प्रकार के धर्म के लिये बोधिभावना कही गई है ।
मूलं सर्वज्ञधर्मद्रोर्द्वारं मुक्तिपुरस्य च । जिनोक्तधर्मयानस्य, प्रतिष्ठानं सुनिश्चलम् ॥१॥ आधारो विनयादीनां धर्मामृतस्य भाजनम् । निर्धिज्ञानादि रत्नानां, सम्यक्त्वमिति भावयेत् ॥२॥ भावार्थ:-- समकित ही सर्वज्ञभाषित श्रावक और साधु इन दोनों प्रकार के धर्मरूप वृक्ष का मूल है क्योंकि
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