SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान ५४ : : ४७७ : सुदर्शन के सदृश जो बलाभियोग से भी स्वधर्म में दृढ़ रहते हैं वे सद्दर्शनद्वारा जगत में प्रधान होकर अल्पकाल ही में उत्कृष्ट संपत्ति को प्राप्त करते हैं । इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे त्रिपञ्चाशत्तमं व्याख्यानम् ॥ ५३ ॥ व्याख्यान ५४ वां समकित की छ भावनायें मूलं द्वारं प्रतिष्ठान - माधारो भाजनं निधिः । द्विविधस्यापि धर्मस्य, षडेता बोधिभावनाः ॥ १ ॥ भावार्थ:- मूल, द्वार, प्रतिष्ठान, आधार, भाजन और निधि ये छ दोनों प्रकार के धर्म के लिये बोधिभावना कही गई है । मूलं सर्वज्ञधर्मद्रोर्द्वारं मुक्तिपुरस्य च । जिनोक्तधर्मयानस्य, प्रतिष्ठानं सुनिश्चलम् ॥१॥ आधारो विनयादीनां धर्मामृतस्य भाजनम् । निर्धिज्ञानादि रत्नानां, सम्यक्त्वमिति भावयेत् ॥२॥ भावार्थ:-- समकित ही सर्वज्ञभाषित श्रावक और साधु इन दोनों प्रकार के धर्मरूप वृक्ष का मूल है क्योंकि "
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy