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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : . जिसके मदनरेखा नामक अति रूपवान स्त्री थी। एक बार मदनरेखा को देख कर मणिरथ कामातुर हो गया और मन में बोल उठा किदृष्ट्वा यद्रूपसंपत्ति, स्वात्मन्येव स्मरो ज्वलन् । वृथा पुनः प्रवादोऽयं, लोके दग्धो हरेण यत् ॥१॥
भावार्थ:--यदि स्त्री की रूपसम्पत्ति को देख कर मेरी आत्मा को ही कामदेव जलाने लगा तो फिर शंकरने कामदेव को जला दिया यह लोकोक्ति वृथा है ।
फिर मणिरथ मदनरेखा को वश में करने के लिये निरन्तर अपनी दासी के साथ पुष्प, तांबूल, वस्त्र तथा अलंकार आदि उसके पास भेजने लगा । मदनरेखा भी अपने “जेठ का प्रसाद " समझ कर उसको ग्रहण करने लगी। एक बार राजाज्ञा से दासीने मदनरेखा से राजा की इच्छा प्रकट की तो मदनरेखाने कहा कि-हे दासी! जगत्प्रसिद्धो नारीषु, शीलमेव महागुणः । तस्मिन् लुप्ते वृथा सर्वे, गते जीव इवांगिनः ॥१॥
भावार्थ:--स्त्रीयों में शीलरूप ही सब से महान गुण जगत्प्रसिद्ध है, यदि उस शील का ही लोप हो जाय तो फिर जीव रहित शरीर के सदृश स्त्रीयों का जन्म ही वृथा है ।
अतः तुम्हारे पृथ्वीपति का मेरे प्रति ऐसे अयोग्य