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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : देहादिक की आशा रक्खे मात्र मोक्षसुख की अभिलाषा में ही निमम रहा । उसने देह की पीड़ा के लिये कहा कि
आपदर्थे धनं रक्षेदारान् रक्षेद्धनैरपि । आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ॥१॥
भावार्थ:-आपत्ति के लिये धन की, धन से स्त्री की और स्त्री तथा धन से भी निरन्तर आत्मा की रक्षा करना चाहिये ।
धर्मिष्ठ पुरुषों के लिये देह और धन एक समान है परन्तु आत्मा देह से विशेष है, अतः देह की पीड़ा की उपेक्षा कर के भी आत्मा का रक्षण करना चाहिये । ___ इस प्रकार उस ब्राह्मण को अपनी प्रतिज्ञा में निश्चय देख कर वे दोनों देव अत्यन्त प्रसन्न हुए और अहो ! सात्विकशिरोमणि ! अहो ! सत्प्रतिज्ञावान् ! उस प्रकार कहते हुए उन दोनों देवोंने अपना रूप प्रगट किया और इन्द्रद्वारा उसकी की हुई प्रशंसा का वर्णन कर सर्व रोगनाशक रत्नों से उसका घर भरपूर कर वे देव स्वस्थान को लौट गये । उन रत्नों के प्रभाव से बिना औषधसेवन के ही उसका शरीर आरोग्य हो गया, अतः वह सर्वत्र “आरोग्यद्विज" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ___ इस प्रकार उस ब्राह्मणने गुरुनिग्रहरूप आगार को जानते हुए भी धर्म की दृढ़ता को नहीं छोड़ा और ग्रहण किये हुए