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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
- आरोग्यद्विज का दृष्टान्त उजेनी नगरी में एक ब्राह्मण रहता था। उसके बाल्या. वस्था से ही रोगी होने से सब उसको रोगद्विज कहा करते थे । लोगों के मुंह से अपना वह नाम सुन कर वह सदैव खेदित रहा करता था । एक बार धर्मदेशना देते हुए मुनि के मुंह से उसने सुना कि
आयुर्गलत्याशु न पापबुद्धिर्गतं वयो नो विषयाभिलाषः । यत्नश्च भैषज्यविधौ न धर्मे, स्वामिन्महामोहविडम्बना मे ॥१॥
भावार्थ:--आयुष्य जाती रहती है परन्तु पापबुद्धि नहीं जाती, युवावस्था व्यतीत हो जाती है परन्तु विषया. मिलाषा नहीं जाती और औषधि करने में यत्न किया जाता है परन्तु धर्म के विषय में यत्न नहीं किया जाता, अतः हे स्वामी ! हे जिनेश्वर ! मुझे यहां मोह की विडंबना है।
अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः, कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥२॥
भावार्थ:-शरीर अनित्य (क्षणभंगुर ) है. वैभव निरन्तर रहनेवाला नहीं और मृत्यु निरन्तर पास ही खड़ी रहती है, अतः प्राणियों को धर्म संग्रह करना चाहिये ।