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व्याख्यान ५१ : .
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हूँ। यह सुन कर उन्होंने कहा कि-धन के समान उन पापकर्मों को भी हम बांट लेगें। इस पर सुलसने एक कुल्हाड़ी से अपने पैर पर घाव बनाया और उसकी पीड़ा से पृथ्वी पर घिर पड़ा। फिर उसने कहा कि तुम जो पापकर्मों को बांट लेना कहते हो तो अभी मेरी इस पीड़ा को भी बांट लो क्योंकि मुझे इससे बहुत दुःख होता है । इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि-यह नहीं बांटी जा सकती, यह तो जो करता है उसीको भोगना पड़ता है । तिस पर सुलसने कहा कि-जब तुम इस प्रत्यक्ष पीड़ा को भी नहीं बांट सकते तो फिर पाप को क्योंकर बांट सकोगें? ऐसा कह कर उनको निरुत्तर कर दिये और आजीवन जीवबध नहीं किया । कहा भी है किअवि इच्छिय मरणं, न परपीडं करंति.मणसा वि। जे सुविइयसुगइपहा, सुरियसुओ जहा सुलसो ॥ . भावार्थ:-कालशौकरिक के पुत्र सुलस के सदृश जिनको सुगति का मार्ग सुविदित है, वे मृत्यु की याचना चाहे भले ही करले परन्तु मन से भी दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाते ।
अनुक्रम से सुलस श्राद्धधर्म का प्रतिपालन कर स्वर्ग सिधारा । . इस संबन्ध में एक और दृष्टान्त प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है कि- .