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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : छोटे बालक इन्ददसने विचार किया कि-अहो ! संसार कैसा स्वार्थी है कि जिस में द्रव्य के लिये माता-पिता अपने पुत्र तक को मारने को तैयार हो जाते हैं।
फिर उसने उसको पुष्पादिक से श्रृंगार कर राजा के पास ले गये । राजाने उस बालक को हँसते हुए आते देख पूछा कि-हे बालक ! तू क्यों हँसता है ? क्या तू मृत्यु से नहीं डरता ? इस पर उस बालकने उत्तर दिया कि-है राजा ! सुनियेतावद्भयाद्विभेतव्यं, यावद्भयमनागतम् । आगतं तु भयं दृष्ट्वा , सोढव्यं तमशकितैः ॥१॥
भावार्थ:-जब तक भय प्राप्त न हो तब तक ही भय से भयभीत होना चाहिये परन्तु भय के उपस्थित होने पर तो उसको निशंकरूप से सहन करना चाहिये क्योंकि फिर उससे भय करना निष्फल है।
__ अपितु हे राजा! लता के अंकुर से हँसों के सदृश जब शरण करने योग्य से ही भय प्राप्त हो तो फिर भग कर कहा जाना ? इस पर राजाने हँस का वृत्तान्त सुनाने को कहा तो वह बालक बोला कि
किसी अरण्य में मानस सरोवर के तीर पर एक सीधा ऊंचा वृक्ष था जिस पर कई हंस निवास करते थे। एक बार उस वृक्ष के मूल में एक लता का अंकुर देख कर वृद्ध हंसने