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व्याख्यान ४६ :
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समय वह बाला अत्यन्त करुण स्वर से विलाप करने लगी कि- " हे प्राणप्रिय ! हे नाथ ! मुझे मृत्यु से बचाओं, मेरी रक्षा करो ! " इस प्रकार विलाप करती हुई उस बाला को कंठ पर्यन्त निगल कर राक्षसने कुमार से कहा कि - " हे मूर्खशिरोमणी ! यदि तू दासी को भी नहीं देना चाहता हो तो केवल एक बकरी ही दे दे; अन्यथा मैं इस स्त्री का भक्षण कर बाद में तेरा भी भक्षण करूंगा । " यह सुन कर कुमारने उत्तर दिया कि - " जब मैं कल्पांतकाल तक भी तेरी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता तो फिर बारंबार पूछने से क्या प्रयोजन ? " इस प्रकार उसके दृढ़ निश्चय से संतुष्ट हो कर वह राक्षस शीघ्र ही अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर बोला कि - " हे साहसिकशिरोमणि ! देवेन्द्रद्वारा की गई तेरी प्रशंसा को न मान कर मैं यहां तेरी परीक्षा लेने निमित्त आया था किन्तु तेरे प्रसाद से मुझे भी समकित प्राप्त हो गया है । " ऐसा कह कर वह देव उसका गांधर्व लग्न कर स्वर्ग सिधारा । फिर कुमार भी मणिमंजरी से महोत्सव पूर्वक विवाह कर अपने नगरे को लौट गया ।
कुमार को राज्य प्रदान कर उसके पिताने भी दीक्षा ग्रहण की। संग्रामसूर राजा भी श्रावकधर्म का प्रतिपालन कर पांचवें देवलोक में देवता हुआ जहां से चवकर एक अवतार धारण कर मोक्षपद को प्राप्त करेगा ।