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व्याख्यान ४७ :
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सिंचन करने लगा। फिर भी उस श्रेष्ठी को न तो कुछ भय ही उत्पन्न हुआ न उसके ऊपर क्रोध ही आया । यह देख कर उस पिशाचने कहा कि-हे मृत्यु की प्रार्थना करनेवाले! यदि तू अब भी धर्म का त्याग नहीं करेगा तो भी मैं तेरे समक्ष तेरी स्त्री का ही घात करूंगा । इस प्रकार उसके बारबार कहने पर श्रेष्ठीने विचार किया कि-सचमुच यह कोई अनार्य (पापी) जान पड़ता है, अतः मैं इसको पकड़लूं। ऐसा विचार कर जोर से चिल्ला कर वह ज्योंहि उसको पकड़ने जाता है कि-वह देव अदृश्य होजाता है । उस समय अपने पति के चिल्लाने के शब्द सुन कर उसकी स्त्री शीघ्र ही पौषधशाला में दौड़ी हुई आई और पति से चिल्लाने का कारण पूछा जिस पर उसने यथार्थ वृत्तान्त कहा वह सुन कर वह बोली कि-हे स्वामी ! तुम्हारे पुत्र आदि सर्व कुटुम्ब को किसीने नहीं मारा, वे तो सब अपने घर में सुखपूर्वक सोये हुए हैं, अतः यह किसी देवताद्वारा किया हुआ उपसर्ग जान पड़ता है परन्तु तुमने जो अपने व्रत का भंग किया यह अयोग्य है, अतः उस पाप की आलोयणा कीजिये । यह सुन कर श्रेष्ठीने लगे हुए दोष की आलोयणा प्रतिक्रमण किया। अनुक्रम से श्रावक की ग्यारह प्रतिमा का वहन कर वह सौधर्म देवलोक में चार पल्योपम के आयुष्यवाला देवता हुआ । वहां से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो सिद्धिपद को प्राप्त करेगा। (यह कथा उपासकदशांग से उद्धृत की गई है।)