________________
. ४२४ :
२४
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
गोशालने उत्तर दिया कि-हे सद्दालपुत्र ! सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा से मुक्त होने से श्रीमहावीर ही महामाहन है । हे श्रमणोपासक ! क्या यहां महागोप, महासार्थवाह, महाधर्मकथक और महानिर्यामक पधारे थे ? यह सुन कर श्रेष्ठीने पूछा कि-तुम इस प्रकार किसका वर्णन कर रहे हो ? गोशालने उत्तर दिया कि-मैं त्रिशलापुत्र श्रीमहावीरस्वामी का वर्णन कर रहा हूँ। यह सुन कर श्रेष्ठीने हर्षित हो बहुमानपूर्वक गोशाल से कहा कि-क्या तुम मेरे गुरु के साथ वाद कर सकते हो ? गोशालने उत्तर दिया कि-हे भद्र ! मैं तेरे गुरु के साथ वाद करने में असमर्थ हूँ क्योंकि वे तो एक ही वचन से मुझे परास्त कर सकते हैं । यह सुन कर सद्दालपुत्रने कहा कि-तुमने उन सर्वज्ञ का यथार्थ वर्णन किया है, अतः मैं सत्कारपूर्वक तुम को अशन, वस्त्र आदि प्रदान करता हूँ परन्तु धर्मबुद्धि से नहीं। इस प्रकार अनेक युक्तियुक्त वाक्यों द्वारा उसको प्रभु के धर्म में दृढ़ जान कर गोशालने विलक्ष हो वहां से अन्यत्र विहार किया।
एक बार एकनिष्ठ सद्दालपुत्र श्राद्धधर्म प्राप्त कर पन्द्रहवें वर्ष में पौषध लेकर पौषधशाला में था कि-रात्री के समय कोई देव हाथ में तीक्ष्ण खड्ग ले पिशाच का रूप धारण कर वहां आकर उपसर्ग करने लगा। उसके घर से उसके एक पुत्र को लाकर शस्त्रद्वारा उसके टुकड़े टुकड़े कर उसके रुधिर को पौषधशाला में बैठे हुए उस श्रेष्ठी के शरीर पर