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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : इस प्रकार सुन कर कुत्तोंने प्रबोध हो जाने से आजन्म प्राणीवध नहीं करने का नियम ग्रहण किया। संग्रामसूर जब ग्राम से वापस अपने घर को लौटा और कुत्तों को प्राणी. बध के लिये छोड़ा परन्तु जब वे कुत्ते बिलकुल आगे न बढ़ चित्र में चित्रित से स्तब्ध होकर खड़े रहे तो उसने उनके रक्षकों से इसका कारण पूछा । रक्षकोंने उत्तर दिया कि-"हे स्वामी ! हम विशेष कुछ नहीं जानते परन्तु इनकी चेष्टा से ऐसा जान पड़ता है कि यहां जो एक साधु आया था उनके वचनों से इनको प्रतिबोध हो गया है ।" यह सुन कर संग्रामसर विचार करने लगा कि-"अहो ! मुझे धिक्कार है कि मैं पशु से भी गया बीता हूँ।" ऐसा विचार कर वह गुरु के समीप गया, जहां उसने धर्मश्रवण किया कि
देवो जिणोठारसदोसवजिओ, गुरु सुसाहु समलोटुकंचणो । धम्मो पुणो जीवदयाइ सुंदरो, सेवेह एवं रयणत्तयं सया ॥१॥
भावार्थ:-अढारह दोषों से रहित जिनेश्वर भगवान को ही देव, पत्थर और कांचन में समान बुद्धि रखनेवाले सुसाधु को ही गुरु और जीवदया आदि से युक्त सुन्दर धर्म को ही धर्म समझ कर इन रत्नत्रय का सदैव सेवन करना चाहिये ।