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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
इस प्रकार विचार कर उसको ध्यान में मग्न देख राजाने उसके चरणकमलों में झुका प्रणाम कर पूछा कि - " हे पूज्य ! ऐसी युवावस्था में आपने ऐसा दुष्कर व्रत क्योंकर ग्रहण किया ? मुझे इसका कारण बतलाइये | इस पर सुनिने उत्तर दिया कि—
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मुनिराह महाराज ! अनाथोऽस्मि पतिर्न मे । अनुकंपा कराभावात्तारुण्येऽप्याहतं व्रतम् ॥१॥
भावार्थ:-- " हे महाराज ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई स्वामी नहीं है, मेरे पर अनुकंपा करनेवाले का अभाव होने से मैंने युवावस्था में ही व्रत ग्रहण किया है । "
यह सुन कर श्रेणिक राजाने हँसी उड़ाते हुए कहा किवर्णादिनामुना साधो !, न युक्ता ते ह्यनाथता । तथापि ते वनाथस्य, नूनं नाथो भवाम्यहम् ||१|| भोगान् भुंक्ष्व यथास्वरं, साम्राज्यं परिपालय । यतः पुनरिदं मर्त्यजन्मातीव हि दुर्लभम् ॥२॥
अर्थात् - - " हे साधु ! तुम्हारे इस रूप आदि को देखते हुए तुम्हारे अनाथ होने की बात अयुक्त जान पड़ती है तिस पर भी यदि तुम अनाथ हो तो मैं तुम्हारा नाथ बनने को तैयार हूँ, अतः तुम यथेच्छ भोग भोगो और मेरे साम्राज्य का प्रतिपालन करो। इस मनुष्य जन्म का फिर से