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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
बी आदि सर्व स्वजन मेरे पास बैठ कर रुदन करते रहते थे और भोजन का भी त्याग कर निरन्तर मेरे पास ही बैठे रहते थे किन्तु फिर भी वे मेरे दुःख का अन्त नहीं कर सके अतः यह ही मेरी अनाथता है। उसके पश्चात् मैंने विचार किया कि - " इस अनादि संसार में इससे भी अधिक वेदनायें अनेक बार मैंने सहन की होगी, परन्तु आज इतनी सी वेदना भी सहन करने में अशक्त हूँ, तो फिर अब आगामी काल में अनादि संसार में मैं ऐसी वेदना क्यों कर सहन करूंगा ? अतः यदि मैं अब क्षणभर के लिये भी इस वेदना से मुक्त हो जाउं तो शीघ्र ही प्रव्रज्या ग्रहण करलूं कि- जिससे आगामी काल में ऐसी वेदना सहन नहीं करनी पड़े । " हे राजा ! इस प्रकार विचार करते हुए मैं सो रहा और मेरी वेदना शीघ्र ही शान्त हो गई । अतः योग को क्षेम करनेवाली होने से यह आत्मा ही नाथ हैं ऐसा निश्चय कर मैने प्रातःकाल को सर्व स्वजनों को समझा कर उनकी स्वीकृति लेकर चारित्र अंगीकार किया इसलिये अब मैं मेरा तथा अन्य सादिक जीवों का भी नाथ बना हूँ क्यों कि - योग का क्षेम करनेवाली केवल आत्मा ही हैं । अपितु हे राजा ! अनायता का एक और दूसरा कारण बतलाया गया है जिसे सुनिये - प्रव्रज्य ये पञ्च महाव्रतानि,
न पालयन्ति प्रचुरप्रमादात् ॥