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व्याख्यान ४५ :
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था कि-" इन्द्रिये अपने अपने विषय में स्वभाव से ही प्रवृत्त होती हैं। वे किसी से भी नहीं रोकी जासकती। तपस्या करना तो केवल मात्र आत्मा का शोषण करना है उससे कोई फल नहीं मिलता । स्वर्ग तथा मोक्ष को किसने देखा है ? ये तो सब असत्य है । कहा भी है किहत्थागया इमे कामा, कालिया ते अणागया । को जाणई परे लोए, अत्थि वा णत्थि वा पुणो ॥१॥
भावार्थ:--ये कामभोग तो हाथ में आये हुए हैं और तपस्यादिक से मिलनेवाले धारे हुए सुख तो अनागत काल में प्राप्त होनेवाले हैं परन्तु कौन जानता है कि-परलोक है भी या नहीं ? अर्थात् प्राप्त चीज का त्याग कर आगे मिलेगी या नहीं, इस शंका में कौन पड़े ?
__ अतः जो कुछ है वह यहीं पर है । स्वर्ग, मोक्ष, पुण्य, . पाप आदि सब मानने योग्य नहीं हैं। इस प्रकार उपदेश कर उस जय वणिकने अनेकों लोगों को भरमा दिया। इस प्रकार उस नगर में पुण्य और पाप के उपदेश करने में कुशल राजा और वणिक दोनों प्रत्यक्ष रूप से सुगति और दुर्गति के मार्गरूप प्रसिद्ध थे।
एक बार राजाने जय बणिक का स्वरूप जान लिया इस लिये उसको उचित शिक्षा देने के लिये उसने गुप्त रीति