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व्याख्यान ४२ :
रसेषु गृद्धा अजितेन्द्रियाश्च, जिनैरनाथाः कथितास्त एव ॥१॥
भावार्थ:-" जो प्रव्रज्या ग्रहण कर अति प्रमादवश पांच महाव्रतों का पालन नहीं करते, रसों के विषय में गृद्ध रहते हैं और इन्द्रियों को नियम में नहीं रखते उन्हीं को . जिनेश्वर देवने अनाथ कहा है।"
निरर्थका तस्य सुसाधुता हि, प्रान्ते विपर्यासमुपैति योऽलम् ॥ न केवलं नश्यति चेहलोकस्तस्यापरः किंतु भवो विनष्टः ॥२॥
भावार्थ:-जो साधु अन्त में विपरीत आचरण करते हैं उनका साधुपन निरर्थक है और इससे उनका यह लोक ही नाश नहीं होता अपितु परभव भी नाश हो जाता है।
निराश्रवं संयममात्मबुद्धया, प्रपाल्य चारित्रगुणान्वितः सन् ॥ ५ क्षिप्त्वाष्टकर्माण्यखिलानि, साधुरुपैति निर्वाणमनन्तसौख्यम् ॥३॥ भावार्थ:--" चारित्रगुणों से युक्त साधु आत्मबुद्धि