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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
" हे महाराज ! मृत्यु के भय से भयभीत होने से मैंने स्नान, भोजनादिक सुखों का कुछ भी अनुभव नहीं किया। सिंह के सामने बांधे हुए, हरे जव को खानेवाले बकरे के सदृश मैंने तो तीनों दिन केवल दुःख का ही अनुभव किया था
और आज शुष्क, निरस और तृण सदृश सामान्य आहार करने पर भी वणिक के घर में बंधे हुए गाय के बछड़े के सदृश खोये हुए जीवन के प्राप्त होने से केवल सुख का ही अनुभव किया है और इसी लिये आज हर्ष से नृत्य करता हूँ।" यह सुन कर राजाने अभयदान की अतिशय प्रशंसा की। ___इस दृष्टान्त का यह तात्पर्य है कि-" जिस प्रकार राजा की छोटी रानीने चोर को मृत्यु के भय से बचा कर उसका महान उपकार किया इसी प्रकार आस्तिक पुरुषों को निर. न्तर प्राणियों पर अनुकम्पा करनी चाहिये कि-जिससे समकित का चोथा लक्षण अनुकम्पा शुद्ध रीति से प्रकट हो सके।" इत्युपदेशप्रासादे तृतीयस्तंभे चतुश्चत्वारिंशत्तम
व्याख्यानम् ॥ ४४ ॥