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व्याख्यान ४२:
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प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है अर्थात् एसी युवावस्था को बिना भोग भोगे निष्फल जाने देना योग्य नहीं है । "
यह सुन कर मुनिने उत्तर दिया कि-"हे राजा ! जब तुम स्वयं ही अनाथ हों तो फिर मेरे नाथ किस प्रकार हो सकते है ? " इस प्रकार पहेले कभी भी नहीं सुने हुए वाक्यों को सुन कर आश्चर्यचकित हो राजाने फिर से प्रश्न किया कि-" हे मुनि! तुम्हारा ऐसा कहना अयोग्य है क्यों कि मैं अनेको हस्तियों, अश्वों, रथों और स्त्रियों आदि का प्रतिपालन करने से उनका स्वामी हूँ, फिर तुम मुझे अनाथ क्यों कर बतलाते हो ?" इस पर मुनिने भी हँस कर उत्तर दिया कि-" हे राजा! तुम अभीतक अनाथ और सनाथ के मर्म को नहीं जानते अतः उस विषय को मैं तुम्हें मेरे दृष्टान्त से ही समझाता हूँ सो सुनिये--
कौशांबी नगरी का महीपाल राजा मेरा पिता है । मैं उसका पुत्र हूँ। मुझे बाल्यावस्था में नैत्र की पीड़ा उत्पन हुई और उसके द्वारा मेरे सम्पूर्ण शरीर में दाहज्वर उत्पन हुआ । मेरी व्यथा को दूर करने के लिये अनेकों मंत्रवादियों तथा वैद्योंने अनेक उपाय किये परन्तु वे मेरी व्यथा को शान्त नहीं कर सके । मेरे पिताने भी मेरे लिये सर्वस्व अर्पण कर देना स्वीकार किया परन्तु मुझे दुःख से मुक्त न कर सके अतः मैं अनाथ हूँ। मेरे पिता, माता, भ्राता, बहेन,