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व्याख्यान ४४ :
: ३९९ : भावार्थ:--मोक्ष फलदायक सुपात्रदान में तो पात्र अपात्र का विचार करना उचित है किन्तु दयादान (अनुकंपादान) के लिये तो तीर्थंकरोंने किसी भी स्थान पर निषेध नहीं किया है। निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु, दयां कुर्वन्ति साधवः। न हि संहरति ज्योत्स्नां, चन्द्रश्चंडालवेश्मनि ॥३॥
भावार्थ:--" साधुजन निर्गुण प्राणियों पर भी दया करते हैं जैसे चन्द्र चन्डाल के घर से भी अपने प्रकाश को नहीं हटा लेता।” वह सब स्थान पर एकसा प्रकाश फैलाता है इसी प्रकार सञ्जन पुरुष भी गुणी तथा निर्गुणी सर्व पर दया करता हैं।
इस विषय पर एक प्रबन्ध है जिसके सम्बन्ध में कहा गया है कि
अपकारेऽपि कारुण्यं सुधीः कुर्याद्विशेषतः । दन्दशूकं दशन्तं श्रीवीरः प्रबोधयद्यथा ॥१॥
भावार्थ:--बुद्धिमान् पुरुष उनके अपकार करनेवाले पर भी विशेष रूप से अनुकम्पा करते हैं जैसे श्रीमहावीर भगवानने अपने को डसनेवाले सर्प को भी बोधित किया था। वह इस प्रकार है--