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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
चंडकौशिक की कथा श्रीमहावीर स्वामी छद्मस्थपन में कनकखल नामक तापसों के आश्रम में चंडकौशिक नामक सर्प को प्रतिबोध करने के लिये पधारे। उस सर्प के पूर्व भव का स्वरूप इस प्रकार है - एक तपस्वी मुनि क्षुल्लक साधु को साथ लेकर पारणे के निमित्त गोचरी करने को गये थे उस समय मार्ग में उन तपस्वी मुनि के पैर के नीचे एक छोटे से मेंड़क के आकर दब जाने से उसकी मृत्यु हो गई किन्तु प्रतिक्रमण के समय वे उसकी आलोचना करना भूल गये, इस पर क्षुल्लक साधुने उनको स्मरण दिलाया कि - " मेंढक के मारे जाने की आलो चना क्यों नहीं लेते ? " इस प्रकार क्रोधित हो वह तपस्वी साधु उस क्षुल्लक साधु को मारने दौड़ा। मार्ग में एक स्थंभ के आजाने से वह तपस्वी साधु उससे टकरा कर मृत्यु को प्राप्त हुआ और ज्योतिषी में उत्पन्न हुआ। वहां से चवकर कनकखल नामक तपस्वी के आश्रम में पांच सो तपस्वियों का अधिपति चंडकौशिक नामक तपस्वी हुआ ।
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एक बार कुछ राजपुत्रों को उस आश्रम के फल तोड़ते देख कर क्रोध से भर उनको मारने के लिये हाथ में परशु (कुल्हाडी) लेकर वह चंडकौशिक तपस्वी उनके पिछे दौड़ा । मार्ग में एक गहरे अन्ध कूप के आजाने से वह उस में गिर कर उसी परशुद्वारा मृत्यु को प्राप्त हो उसी नाम से दृष्टिविष सर्प हुआ ।