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व्याख्यान ४३ : ..
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उत्तर दिया कि-" हे राजा! तेरा आयुष्य केवल नो पहर मात्र का अवशेष है।" यह सुन कर मृत्यु के भय से जब उस राजा का सारा अंग कांपने लगा तो मुनीश्वरने कहा कि-" हे राजा ! यदि तेरे को मृत्यु की चिन्ता का भय हो तो तू प्रव्रज्या ग्रहण कर; क्यों किअंतोमुत्तमित्तं, विहिणा विहिया करेइ पव्वजा । दुरकाणं पजंतं, चिरकालकयाइ किं भणिमो ?॥१॥
भावार्थ:-एक अन्तर्मुहूर्त मात्र तक भी यदि विधिपूर्वक ग्रहण की हुई प्रव्रज्या का उत्तम रीति से पालन किया हो तो वह सर्व दुःखों का अन्त (नाश) करनेवाली होती है, तो फिर जिसने चिरकाल दीक्षा का पालन किया हो उसका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् उसका फल तो सर्व दुःखों का नाश करनेवाला हो इस में आश्चर्य की कौनसी बात है ।
इस प्रकार ज्ञानी के वचन सुन कर उस राजाने स्त्री तथा मित्रों सहित शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् वह राजर्षि " एगोहं नत्थि मे कोई" "मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नहीं है ” आदि शुभ ध्यान ध्याते हुए मृत्यु को प्राप्त कर सर्वार्थसिद्धि विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। वहां से चवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो मोक्षपद को प्राक्ष