________________
: ३८४ :
श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : से आश्रव रहित संयम का प्रतिपालन कर समग्र अष्ट कर्मों का क्षय कर, अनन्त सुखदायक निर्वाण(मोक्ष)पद को प्राप्त करता है।"
इस प्रकार मुनि के वचन सुन कर श्रेणिकराजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और हाथ जोड़ कर कहने लगा कि-" हे मुनिराज ! आपने जो मुझे अनाथ और सनाथपन का रहस्य बतलाया है वह बिलकुल सत्य है, उसमें लेशमात्र भी असत्य नहीं है । हे मुनि ! आपका मनुष्य जन्म सफल है। संसार में आपने ही उत्तम लाभ प्राप्त किया है अपितु आपने श्रीजिनेश्वरप्रणीत धर्म को अंगीकार किया है, अतः आपही सनाथ हैं और आपही बंधुयुक्त हो। सचमुच आपही जब से आपने चारित्र ग्रहण किया है तभी से स्थावर एवं जंगम अनाथ प्राणियों के नाथ बने हैं, अतः मैं अपने अपराध का नाश करने के लिये आप से क्षमा याचना करता हूँ अपितु आपके ध्यान में विघ्नकारी प्रश्न पूछ कर मैंने जो दूषण किया है तथा सांसारिक भोग भोगने के लिये जो मैने आप को अघटित निमंत्रण दिया है उस सर्व के लिये मेरे अप. राध को क्षमा कीजिये ।" इस प्रकार कह कर भक्तिपूर्वक उस मुनि की स्तुति कर सर्व राजाओं में चन्द्र सदृश श्रेणिक. राजा धर्म में अनुरक्त हो अपने अंतःपुर और परिवार सहित अपनी नगरी को लौटा।