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व्याख्यान ४३ :
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अमितगुण समूह से समृद्ध उस निर्ग्रन्थमुनिने पक्षी के सदृश प्रतिबंध रहितपन से पृथ्वी पर विहार कर तीन गुप्ति से गुप्त हो, उग्र तीन दंड से विराम पाकर, मोहादिक का नाश कर, संवेग के प्रभावद्वारा अनुक्रम से अक्षय सुखदायक ; मोक्षपद को प्राप्त किया ।
इत्युपदेशप्रासादे तृतीयस्तंभे द्विचत्वारिंशत्तमं
व्याख्यानम् ॥ ४२ ॥
व्याख्यान ४३ वां
तीसरा निर्वेद नामक लक्षण संसारकारकागार- विवर्जनपरायणा । प्रज्ञा चित्ते भवेद्यस्य, तन्निर्वेदकवान्नरः ॥ १ ॥ भावार्थ:- " संसाररूपी कारागृह को वर्जन करने को जिसके चित्त में दृढ़ बुद्धि हो उसे निर्वेदवान पुरुष कहते है । "
सिद्धात में कहा है कि -" निव्वेएणं! भंते जीवे किं जाई " हे भगवान् ! निर्वेद से जीव क्या उपार्जन करता है ? भगवंत फरमाते है कि- " निव्वेएणं ते दिव्यमाणुस्सतिरिच्छएसु कामभोगेसु विरज्जमाणे निव्वेयं हब्वमागच्छइ । सव्वविसएस विरजइ । सव्वविस
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