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व्याख्यान ३५ :
: ३२५ : से इसकी पूर्ति के लिये प्रार्थना की, इस से सरस्वती की कृपा से सरिने इस प्रकार इसकी पूर्ति की किसुगृहीतं च कर्तव्यं, कृष्णसर्पमुखं यथा ॥ १ ॥
उन शास्त्र आदि को (आजीविका के हेतुरूप को) कृष्ण सर्प के मुंह के सदृश अच्छी तरह से ग्रहण करना चाहिये अर्थात् राजाने जिस प्रकार कृष्ण सर्प का मुख अच्छी तरह से ग्रहण किया उसी प्रकार शास्त्रादिक आजीविका के कारणों को भी अच्छी प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि-जिस से आजीविका बराबर चल सके । .
फिर उस द्यूतकारने आमराजा के पास जा कर उस समस्या की पूर्ति की । यह सुन कर उस राजाने उस द्यूतकार को अत्यन्त आग्रह से धमकी देकर पूछा कि-सत्य सत्य बतला कि-इस समस्या की पूर्ति किसने की ? इस पर उसने सब बात सचसच बतला दी। यह सुन कर राजा को विचार हुआ कि-गुरु के इतने दूर होने पर भी जो उसने कृष्ण सर्प की बात बतला दी तो फिर मैने जो उस पर झूठा शक किया था वह नितान्त अनुचित है आदि विचारों के आने से राजा को अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ और उसने गुरु को वापस लोटा लाने के लिये अपने प्रधान मंत्रीयों को भेजा और उनके द्वारा यह कहलाया किछायाकारण शिर धाँ, पत्त वि भूमि पड़त ।