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धी उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
विस्मित हो जब उसको धमका कर पूछा तो उसने उस मुनि का नाम बतला कर सब बात सत्य सत्य वर्णन की। यह सुन कर राजा उस मुनि के पास गया और उनसे क्षमा याचना की। राजाने उसको सातों भवों का वृत्तान्त सुनाया अतः मुनिने भी उसको खमाया। इस प्रकार दोनों ही पर.. स्पर अपने अपराध की निंदा गर्दा करते हुए चिरकाल तक प्रीति से बातें करते रहे।
उस समय उस नगरी में कोई केवलज्ञानी मुनि पधारे जिनको बन्दना कर उन दोनोंने अपने अपनी पाप की आलोयणा मागी, इस पर केवलीने उत्तर दिया कि तुम्हारे पाप का विना शत्रुजय तीर्थ की यात्रा किये उग्र तपों से भी नाश नहीं होगा ! यह सुन कर राजाने भी दीक्षा ग्रहण की। फिर उन दोनोने शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर, भाव से संयम का पालन कर, हत्यादिक पाप का नाश कर, शत्रुजय तीर्थ पर सिद्धिपद को प्राप्त किया।
इस प्रकार समकित के अन्तिम भूषण-तीर्थसेवा की प्रशंसा सुना कर हे भव्य जीवो! तुम को भी कुविकल्प समूह का त्याग कर सुतीर्थ की सेवा करनी चाहिये । इत्युपदेशप्रासादे तृतीयस्तंभे चत्वारिंशत्तम
व्याख्यानम् ॥ ४० ॥