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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
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क्यों नहीं करते ? यह सुन कर उस तपस्वीने विचार किया कि यह दुष्टबुद्धि क्षुल्लक साधु सर्व साधुओं के समक्ष मेरा तिरस्कार करता है अतः मुझे इसे इसका फल चखाना चाहिये | ऐसा विचार कर वह उसे मारने को दौड़ा। क्रोध से अन्धे उस तपस्वी व क्षुल्लक साधु के बीच में एक स्थंभ के आजाने से वह जोर से उसके साथ टकराया और तुरन्त ही पृथ्वी पर गिर मूर्छा खाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ । क्रोधवश व्रत की विराधना करने से वह मर कर ज्योतिषी देवता हुआ जहां से आयुष्य के पूर्ण होने पर चव कर दृष्टिविष सर्प के कुल में देवताधिष्ठित सर्प हुआ । उस सर्प के कुल में अन्य सर्व सर्प पूर्वभव के पाप की आलोचना नहीं करने से ही उत्पन्न हुए थे जो जातिस्मरण उत्पन्न होने से आहारशुद्धि करते थे । उनको देख कर इस नये सर्प को मी पूर्व मुनि के भव में की हुई आहार गवेषणा का स्मरण करते हुए जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो गया, अतः मेरी दृष्टि से किसी भी जीव का नाश न हो ऐसा विचार कर वह सर्प सारे दिन अपने बिल में ही मुंह छुपा कर पड़ा रहता था और रात्रि में केवल प्रासु वायु का ही सेवन करता रहता था ।
एक बार कुंभ नामक राजा का पुत्र सर्पदंश से मृत्यु प्राप्त हो गया इससे वह सर्प जाति पर क्रोधित होकर सर्प मात्र को मारने लगा । उसने घोषणा की कि जो कोई