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व्याख्यान ४१ :
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पुरुष जितने सर्प मारेगा उसको उसके बदले में उतनी ही स्वर्णमुद्रा इनाम दी जायगी। कई पुरुषोंने धन के लोभ से सर्प को आकर्षण करने की विद्या (मंत्र) का अभ्यास किया । एक बार कोई पुरुष उस दृष्टिविष सर्प के बिल के समीप जाकर सर्पविद्या के मंत्र का उच्चारण करने लगा इससे उस सर्प का बिल में रहना अशक्य होने से उसने विचार किया कि-मेरे को देख कर अन्य जीवों का नाश नहीं होना चाहिये । ऐसा विचार कर उसने अपना मुंह बिल ही में रख कर केवल पूछ को बाहर की ओर निकाला जिसको हिंसकोने काट डाला। इस पर अपना वह पीछे का भाग शनैः शनैः बाहर निकालने लगा परन्तु उसको हिंसकोने काट डाला । इस प्रकार करते हुए उन्होंने सर्प के सम्पूर्ण शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिये। उस समय सर्पने विचार किया कि-हे चेतन ! तेरे इस देह के टुकड़े होने के मीष तेरे दुष्कर्म के ही टुकड़े हो रहे हैं अतः हे जीव ! परिणाम में हितकर इस व्यथा को तू समतापूर्वक सहन कर । इस प्रकार शुभ ध्यान को ध्याते हुए वह सर्प मृत्यु को प्राप्त कर उसी कुंभ राजा की राणी की कुक्षी में अवत्त हुआ।
नागदेवताने राजा को स्वम में आकर कहा कि-हे राजा ! अब तू सपों का घात न कर, तेरे एक पुत्ररत्न उत्पन्न होगा । इस पर राजाने सर्पो की हिंसा का त्याग किया