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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : और अनुक्रम से समय के पूर्ण होने पर रानीने पुत्र प्रसव किया। राजाने स्वप्न के अनुसार उसका नाम नागदत्त रक्खा । उसके युवावस्था को प्राप्त होने पर एक बार वह जब अपने महल की खिड़की के समीप खड़ा हुआ था उस समय उसको एक मुनि का उस ओर जाते देख कर जातिस्मरण ज्ञान हो गया, अतः उसने वैराग्य उत्पन्न होने से आग्रहपूर्वक माता पिता की आज्ञा लेकर सुगुरु के समीप जा दीक्षा ग्रहण की।
उस साधु के तिर्यंचयोनी से आने के कारण व क्षुधावेदनीय का उदय होने से पोरिसी का भी प्रत्याख्यान नहीं कर सकते थे अतः गुरुने उनसे कहा कि-" हे वत्स ! तू केवल क्षमा का फल ही पूर्णरूप से पालन कर जिससे तुझे सर्व तप का फल प्राप्त हो सकेगा।" यह सुन कर वह गुरु की आज्ञानुसार चलने लगा। वह साधु सदैव प्रातःकाल होते ही एक गडुक प्रमाण कूर (चांवल) लाकर अपने उपयोग में लाते थे तब ही उनको शांति मिलती थी, अतः लोक में वे कूरगडु का नाम से प्रसिद्ध हुए ।
उस गच्छ में चार तपस्वी साधु थे। जिन में पहेले साधु मासोपवासी थे, दूसरे दो मास के उपवासी थे, तीसरे तीन मास के उपवासी थे और चोथे चार मास के उपवासी थे। वे चारों तपस्वी कूरगड मुनि को नित्यभोगी कह कर