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व्याख्यान ४१
उसकी निन्दा किया करते थे। एक बार शासनदेवीने वहां आकर कूरगडुक मुनि को वन्दना कर तथा अनेक प्रकार से उनकी वन्दना कर सर्व साधुओं के समक्ष कहा कि-" इस गच्छ में आज से सातवें दिन प्रथम एक मुनि को केवलज्ञान प्राप्त होगा।" यह सुन कर उन चारों साधुओंने कहा कि-" हे देवी ! हमारा अनादर कर तूने इस कूरगडुक साधु को वन्दना क्यों की है ?” इस पर देवीने उत्तर दिया कि-"मैं भाव तपस्वी को वन्दना करती हूँ।" बाद वह अन्तध्यान होगई । __ सातवें दिन कूरगड मुनिने जब शुद्ध आहार लाकर गुरु तथा उन तपस्वियों को दिखाया तो उस तपस्वियों के मुंह से श्लेष्म आया जिसको उन्होंने उस आहार में फेंक दिया। इस पर कूरगडने विचार किया किधिङ्मांप्रमादिनं स्वल्पतपःकमोज्झितः सदा । वैयावृत्यमपि ह्येषां, मया कर्तुं न शक्यते ॥१॥
भावार्थ:-" मुझ प्रमादी को धिक्कार है कि-मैं निर. न्तर अल्प मात्र तपस्या से भी वंचित रहता हूँ अपितु इन तपस्वियों की वैयावच्च तक नहीं कर सकता ।" इस प्रकार आत्मनिन्दा करते हुए तथा निःसंकोच होकर आहार करते हुए शुक्लध्यान में आरुढ़ होने से उस मुनि को केवलज्ञान