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व्याख्यान ३६ :
.३४३ : जित तीर्थंकर का स्वरूप बनाया फिर भी वह सुलसा उसे वन्दन करने को नहीं गई । इस पर उसने उसको बुलाने के लिये किसी आदमी को भेजा जिसने सुलसा को जाकर कहा कि-अपने नगर के बाहर पच्चीसवें तीर्थकरने समवसरण किया है उनको वन्दना करने के लिये तू क्यों नहीं जाती ? इस पर सुलसाने उत्तर दिया कि-हे भाई! वह जिनेश्वर नहीं है किन्तु कोई पाखंडी पच्चीसवें तीर्थंकर का नाम धारण कर लोगों को ठगता है। इस प्रकार जब किसी भी प्रकार से वह सुलसा अपने धर्म से विचलित नहीं हुई तो फिर पांचवें दिन वह अंबड परिव्राजक श्रावक का वेष धारण कर सुलसा के घर गया जहां सुलसाने उसका अच्छा सत्कार किया । फिर उसने सुलसा से कहा कि-हे सुलसा ! तुम अत्यन्त पुन्यशाली हो क्योंकि तुम को मेरे मुंह से स्वयं परमात्मा श्रीमहावीर प्रभुने धर्मलाभ कहलाया है । यह सुन सुलसा हर्षित हो खड़ी हो कर भक्तिपूर्वक इस प्रकार प्रभु की स्तुति करने लगी किमोहमल्लबलमर्दनवीर!, पापपंकगमनामलनीर!। कर्मरेणुहरणैकसमीर !, त्वं जिनेश्वरपते! जय वीर॥
भावार्थ:-मोहरूपी मल्ल के सैन्य का मर्दन करने में शूरवीर, पापरूपी पंक को धोने के लिये निर्मलता के सदृश