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व्याख्यान ४० :
: ३६७ : लौकिक तीर्थसेवा पर तुंबडी का दृष्टान्त न श्लाध्यतीर्थैरमलीभवन्ती, | जीवादुरन्तैर्दुरितः प्रलिप्ताः । मीष्ठा सुतीर्थे स्नपितापि, मातुर्वाग्भिस्तनूजन न तुंबिकासीत् ॥१॥
भावार्थ:-दुरन्त पापों से लिप्त हुए जीव प्रशस्त तीर्थों के करने से भी निर्मल नहीं होते । माता की आज्ञानुसार पुत्रने तुंबडी को सुतीर्थ में स्नान कराया परन्तु फिर भी वह मीठी नहीं हुई।
विष्णुस्थल नगर में गोमती नामक एक सार्थवाह की स्त्री परम श्राविका थी। उसके गोविन्द नामक एक पुत्र था । वह बड़ा भारी मिथ्यात्वी था । माताने उसे जैनधर्म की शिक्षा देने का अत्यन्त परिश्रम किया परन्तु उसने मिथ्यात्व का त्याग नहीं किया। एक बार गोविंद तीर्थयात्रा करने को तैयार हुआ तो उसकी माताने उससे कहा कि हे वत्स ! गंगा, गोदावरी, त्रिवेणीसंगम, प्रयाग आदि लौकिक तीर्थों में जल, दर्भ और मिट्टी आदिद्वारा स्नान करने से हिंसा, असत्य, चोरी आदि से उपार्जन किये हुए पाप का नाश नहीं होता है । इस प्रकार अनेक प्रकार से समझाने बुझाने पर भी जब उस पुत्रने अपना हठ नहीं छोड़ा तो उसको