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व्याख्यान ३९ ः
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राजाने कहा कि - हे पूज्य ! मेरा नगर धन्य है कि- जहां श्रीमहावीर प्रभु को पारणा करानेवाला भाग्यशाली अभिनव श्रेष्ठी रहता है । यह सुन कर मुनिने कहा कि - हे राजा ! ऐसा न कहीं । यद्यपि अभिनव श्रेष्ठिने प्रभु की द्रव्यभक्ति की फिर भी भावभक्ति तो जीर्ण श्रेष्ठीने ही की है अतः सच्चा पुण्यवान तो जीर्णश्रेष्ठी है। यदि जीर्णश्रेष्ठीने उस समय भावना भाते हुए देवदुन्दुभी का शब्द नहीं सुना होता तो उसको उसी समय उज्वल केवलज्ञान प्राप्त हो जाता। इस प्रकार गुरु के वचन सुन कर राजा आदि अन्य सब लोग देवगुरुभक्ति के विषय में आदरवंत हो अपने स्थान को लौट गये ।
श्रीवरप्रभु के विषय में भक्तियुक्त चित्तवाला जीर्ण श्रेष्ठी बारहवें स्वर्ग का सुख भोग कर अनुक्रम से शिवपद (मोक्षपद ) को प्राप्त करेगा ।
इत्युपदेशप्रासादे तृतीयस्तंभे एकोनचत्वारिंशत्तमं व्याख्यानम् ॥ ३९ ॥