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व्याख्यान ३९ :
: ३६३ :
सिन्धुप्रवृद्धयै कुमुदौघलक्ष्म्यै,
चकोरतुष्टयै विधुरभ्रगोऽपि ॥ १ ॥
भावार्थ:-जिस प्रकार बादलों से आच्छादित होने पर भी चन्द्रमा सागर की वृद्धि, कुमुद समूह की लक्ष्मी (विकाश) और चकोर पक्षी की प्रीति का हेतु होता हे उसी प्रकार परोक्ष जिनेश्वर का भी यदि मन, वचन और काया द्वारा शुद्ध भक्ति से ध्यान किया जाय तो वह जीर्णश्रेष्ठी के सदृश इष्टसिद्धि की प्राप्ति का हेतु होता है ।
विशाला नगरी के उद्यान में श्रीमहावीरस्वामी चातुर्मासी तप कर प्रतिमा धारण कर रहे थे कि-उस नगर के निवासी जीर्णश्रेष्ठीने प्रभुसे प्रार्थना की कि-हे प्रभु ! आज मेरे घर पधार कर मुझे पारणे का लाभ दीजिये । ऐसा कह कर वह श्रेष्ठी अपने घर चला गया। भोजन के समय उसने बहुत देर तक प्रभु की राह देखी किन्तु प्रभु नहीं आये तो दूसरे दिन यह विचार कर कि-आज छठ का पारणा होगा, प्रभु के पास जाकर बोला कि-हे कृपासागर स्वामी ! आज मुझे तथा मेरे घर को पवित्र करने को पधारना । उस समय स्वामी मौन ही रहे (अर्थात् कुछ भी नहीं बोले)। इस प्रकार जीर्णश्रेष्ठी सदैव आआकर प्रभु को निमन्त्रण करता रहता था। ऐसा करते करते जब चातुर्मास पूर्ण हुआ तो चातुर्मास