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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
सुप्रयुक्तस्य दंभस्य, ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति ॥१॥
भावार्थ:-उत्कृष्ट चारित्र प्रदान किया, फिर भी उसकी माया को किसीने नहीं जाना क्योंकि अत्यन्त गुप्त कपट को ब्रह्मा भी नहीं जान सकते ।
कपट में ही मन की एकाग्रता रखनेवाले, अस्थिर । चित्तवाले उस मायावी साधुने यथास्थित व्रत का चिरकाल तक पालन किया, फिर भी कांगडु मग के सदृश उसका एक बाल भी दया के रस से आई नहीं हुआ | एक बार गुरु पाटलीपुर पधारे जिनका आगमन सुनकर उदायी राजा गुरु को वन्दना करने को आया और गुरु तथा अन्य साधुओं को वन्दना कर फिर गुरु के मुंह से व्याख्यान सुन कर अपने स्थान को लौटा । बाद में पर्वणी के दिन राजा प्रातःकाल उठ, विधिपूर्वक प्रतिक्रमण कर, अष्ट प्रकार से जिनपूजा कर गुरु के पास गया, वहां गुरु को चारसो उन्नतीस स्थानकद्वारा उपशोभित द्वादशावर्त वन्दना कर, अतिचार की आलो. चना कर, गुरु को खमा कर चतुर्थ (उपवास) का पञ्चखान लिया । फिर सायंकाल को अपने अन्तःपुर की पौषधशाला में पौषध ग्रहण करने की इच्छा से राजाने गुरु को बुलवाया। कहा भी हैं किजं किंचि अणुट्ठाणं, आवस्सयमाइयं चरणहेउ । तं करणं गुरुमूले, गुरुविरहे ठवणापुरओ ॥१॥