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व्याख्यान ३८ :
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बार उसने अवन्ती के राजा से विनति की कि-हे स्वामी ! यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके शत्रु उदायी राजा को मैं मारडालूं परन्तु यदि मैं ऐसा कर सकूँ तो आप मुझे कृपा कर मेरे पिता का राज्य वापस जीत लेने में मेरी सहायता करना । यह सुन कर राजाने उसके वचनों को हर्षपूर्वक स्वीकार किया और उसको बहुतसा द्रव्य देकर वहां से बिदा किया। वह राजपुत्र पाटलीपुर जाकर उदायीराजा का सेवक बन निरन्तर उसके छिद्र खोजने लगा परन्तु उसको कोई छिद्र नहीं मिला | राजा के गृह में उसने, निरन्तर अस्खलित गति से जैन मुनियों को आते जाते देखा, उनके अतिरिक्त अन्य किसी को भी वहां जाते नहीं देखा अतः उसने उदायीराजा के गृह में प्रवेश करने का विचार कर गुरु के समीप जाकर वन्दना कर विज्ञप्ति की कि-हे पूज्य ! मुझे संसार से वैराग्य हो गया है अतः मेरे पर कृपा कर मुझे दीक्षित कर कृतार्थ कीजिये । यह सुन कर कृपालु महात्माने उसके हृदयगत भावों को न जान कर उसे दीक्षित किया । उस मायावीने कपट से अपने ओघे में गुप्त रूप से एक कंकलोह की छूरी छिपा रखी थी। इस प्रकार उसने माया से सोलह वर्ष पर्यन्त व्रत का पालन किया, फिर भी किसी को उसकी माया का पता न चला । कहा भी है किदत्तं प्रधानं श्रामण्यं, न तच्चालक्षि केनचित् ।