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व्याख्यान ३८ :
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अपनी माता चेलणा से कहा कि - है माता ! इस पुत्र पर मेरा जैसा स्नेह है वैसा स्नेह न तो किसी का था, न है और न कभी होगा ही । यह सुन कर चेलणादेवीने कहा कि हे वत्स ! तेरा स्नेह किस गिनती में है ? जैसा स्नेह तेरे पर था, उस स्नेह का एक करोड़वा अंश भी तेरा तेरे पुत्र पर नहीं है । कोणिकने पूछा कि हे माता ! मेरे पिता । का मेरे पर कैसा स्नेह था ? इस पर चेलणाने कहा कि हे १ वत्स ! जब तू मेरे गर्भ में था तब मुझे तेरे पिता की आंतें खाने का दोहद उत्पन्न हुआ उसको अभयकुमारने किसी भी युक्ति से तेरे पिता की रक्षा कर पूर्ण किया। फिर पूर्ण समय पर तेरा जन्म हुआ तब ऐसा विचार कर कि - यह पुत्र इसके पिता का अहित करेगा, मैंने तेरे को तुरन्त ही दासी द्वारा उद्यान में फिकवा दिया। जहां पर एक मुर्गने तेरी टचली अंगुली को चांच से काट खाया । उस अंगुली में किड़े पड़ने से वह सड़ने लगी । मेरे द्वारा तेरे त्यागे जाने का वृत्तान्त जब तेरे पिताने सुना तो उसने मेरी निर्भर्त्सना कर स्वयं उद्यान में गया और तुझे ले आया । फिर स्नेह के आधीन होकर तेरे पिताने सर्व राजकार्य का त्याग कर तेरी अंगुली को ठीक करने का उपचार करने लगा परन्तु उस अंगुली की असह्य व्यथा के कारण तू बहुत रोने चिल्लाने लगा अतः तेरे पिताने उस अंगुली को अपने मुंह में रखा तब कही तू ने रोना बंद किया और कुछ पीड़ा की शान्ति