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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
बहने लगी और दैवपाल नदी के सामने किनारे पर न जा सका इस से वह बिना प्रभु के दर्शन किये शोकातुर हो वापस घर को लौट आया । घर पर श्रेष्ठिने उसको भोजन करने को कहा तो उसने अपने नियम ग्रहण की वार्ता बतला कर भोजन करने से मना किया। यह सुन कर श्रेष्ठि हर्षित हो कर उस से कहने लगा कि यदि ऐसा है तो अपने गृहचैत्य की पूजा करले, यह सुन कर उसने गृहचैत्य की पूजा करली परन्तु भोजन नहीं किया । इस प्रकार करते करते सात दिन व्यतीत हो गये परन्तु नदी का पूर कम नहीं हुआ इस से वह सात दिन तक बिना भोजन किये रहा और आठवें दिन पूर कम होने पर वह प्रातःकाल पर्णकुटी में आदिनाथ की पूजा करने को गया तो वहां पर उसने एक भयंकर सिंह को देखा परन्तु उसने उससे लेशमात्र भी भय न पाकर उसकी शीयाल के सदृश अवगणना कर प्रभु की पूजा की। फिर वह बोला कि -
त्वद्दर्शनं विना स्वामिन्ममाभूत्सप्तवासरी । अकृतार्था यथारण्यभूमिरुह फलावलिः ||१||
भावार्थ:- हे स्वामी ! आप के दर्शनों के बिना अरण्य में स्थित वृक्षों के फलों के सहश मेरे सात दिन अकारण ( निष्फल ) गये हैं ।
उस समय उसके सच्च तथा भक्ति से प्रसन्न होकर