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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : और कर्मरूपी रज को हरण करने में चायु सदृश हे श्रीजिनेश्वरपति ! हे महावीरस्वामी ! आप की जय हो ।
इस प्रकार स्तुति करनेवाली सुलसा की प्रशंसा कर वह परिव्राजक अपने स्थान को लौट गया ।
शीलगुण से शोभित सुलसा सद्धर्म की आराधना कर स्वर्ग सिधाई जहां से चव कर आयन्दा चोवीशी में भरतक्षेत्र में निर्मम नामक पन्दरवा तीर्थकर होगा।
श्रीमहावीरस्वामी के मुंह से स्थिरता, उदारता और महार्थता से भरा हुआ तीनो जगत को आश्चर्य में डालनेवाला सुलसा का निर्मल चरित्र सुन कर हे भव्य प्राणियों! तुम को भी ऐसे श्रेष्ठ धर्म के विषय में स्थिरता रखनी चाहिये कि-समकित से भूषित हो कर तुम मुक्तिरूपी स्त्री के आलिंगन सुख का अनुभव कर सको।
इत्युपदेशप्रासादे तृतीयस्तंभे षट्त्रिंशत्तम
व्याख्यानम् ॥ ३६ ॥