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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : राजगृह नगरी की ओर जा रहा था। श्रीजिनेश्वरने उससे कहा कि-हे परिव्राजक! यदि तुम राजगृह नगरी में जाओ तो वहां सुलसा श्राविका रहती है उसको हमारा धर्मलाभ कहना । प्रभु के वाक्य को स्वीकार कर उसने राजगृह नगरी में आकर विचार किया कि-भगवान स्वयं जिस सुलसा को धर्मलाभ कहलाते हैं उसकी धर्म में कैसी श्रद्धा है मुझे उसकी परीक्षा करनी चाहिये । इसलिये उसने नगर के पूर्व दिशा के दरवाजे बाहर वैक्रियलब्धि से चार मुंहवाला, हंस की सवारीवाला और जिसके अर्धांग में सावित्री स्थित है ऐसा साक्षात् ब्रह्मा का स्वरूप बनाया । उसके इस स्वरूप का वर्णन सुन नगर के सब लोग उस ब्रह्मा को वंदन करने के लिये गये परन्तु जैनधर्म में दृढ़ अनुराग रखनेवाली सुलसा अनेको मनुष्यों के कहने पर भी वहां नहीं गई। फिर दूसरे दिन दक्षिण दिशा के बाहर उस परिव्राजकने वृषभ की सवारीवाला, अर्धांग में पार्वती को धारण करनेवाला तथा सम्पूर्ण शरीर पर भस्म लगाये हुए शंकर का स्वरूप बनाया। वहां भी सुलसा के अतिरिक्त सर्व लोग उसे वन्दना करने को गये । फिर तीसरे दिन पश्चिम दिशा के दरवाजे के बाहर गुरुड़ की स्वारीवाला, चार हाथवाला तथा सुन्दर स्त्रियों से अलंकृत कृष्ण का स्वरूप बनाया। वहां भी सुलसा के अतिरिक्त सर्व लोग उसे वन्दना करने को गये । फिर चोथे दिन उत्तर दिशा के दरवाजे बाहर समवसरण में बिरा