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व्याख्यान ३५ :
यह सुन कर राजा वैसा ही करने को तैयार हुआ तो गुरुने उस से कहा कि-हे राजा! तू ने तो संकल्प मात्र से पाप किया है, तूने उसके साथ संगम नहीं किया अतः तू पश्चात्ताप करने मात्र से ही मुक्त हो गया है तो फिर पतंगियों के सदृश व्यर्थ प्राणनाश से क्या फल होगा ? अब तो तू चिरकाल पर्यंत जैनधर्म का आचरण कर कि जिस से तेरी आत्मा का कल्याण हो । यह सुन कर गुरु का वचन सिरोधार्य कर राजा अपने घर को लौट गया। ____एक बार राजाने गुरु से पूछा कि-हे गुरु ! मैं पूर्व भव में कौन था ? इस पर गुरुने उत्तर दिया कि इस प्रश्न का उत्तर मैं काल दूंगा । ऐसा कह कर गुरु उपाश्रय में आये
और रात्री में सरस्वती देवी को पूछ कर राजा का पूर्व भव जानलिया। प्रातःकाल जब राजसभा में गये तो गुरुने राजा को उसके पूर्व भव का वृत्तान्त सुनाया कि-हे राजा ! पूर्व भव में तू तापस था । तू ने कालिंजर नामक गिरि के तट पर शालवृक्ष के नीचे एकान्तर उपवास कर डेढ़ सो वर्ष तक उग्र तपस्या की और वहां से आयुष्य का क्षय कर मृत्यु प्राप्त कर राजा हुआ। यदि तुझे इस बात की प्रतीति करनी हो तो जाकर देख आ, उस वृक्ष के नीचे अभी तक तेरी जटा पड़ी हुई है । यह सुन कर राजाने अपने सेवकों को भेज कर वह जटा मंगवाई जिसको देख कर राजा को प्रतीति