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व्याख्यान ३५ :
:३३१
किं चातः परमस्ति ते, स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां । त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोध्धुं क्षमः ॥१॥
भावार्थ:--हे जल ! तेरे शीतलता का एकान्त गुण है, तेरी स्वच्छता (निर्मलता) स्वाभाविक है, तेरे निर्मलता के लिये अधिक क्या कहें ? परन्तु तेरे संग से अन्य लोक भी निर्मल-पवित्र होते हैं अपितु तू प्राणियों के जीवन का आधार है फिर इस से अधिक हम तेरी क्या स्तुति करे ? परन्तु हे जल ! यदि तू स्वयं ही नीच मार्ग का अवलम्बन कर ले तो फिर तुझे रोकने में कौन स्मर्थ है ?"
लजिजइ जेण जणे, --- मइलिजई निअकुलकमो जेण ।।
कंठठिए वि जीए, तं न कुलीणेहिं कायव्वं ॥ २ ॥
भावार्थ:-जिस अकार्य के करने से लौकिक निन्दा हो, और अपने कुलक्रम में मलिनता. आयें ऐसा अकार्य कुलीन पुरुषों को कंठस्थ प्राण आने पर भी नहीं करना चाहिये । आदि।