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व्याख्यान
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से छला. गया हूँ। फिर धर्मराजा से विदा ले कर गुरु वहां से विहार कर आमराजा से मार्ग में ही मिले और उन के साथ साथ ग्वालियर पधारे जहां पहले की तरह आमराजाने गुरु को भक्तिपूर्वक रक्खा ।
एक बार वहां गायकों की मंडली आई । जिस में एक सुन्दर मातंगीवाला अति मधुर स्वर से गायन करने लगी। उस के गायन से आमराजा कामातुर हो कर बोला किवक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरलता दन्ता मणिश्रेणयः, कान्तिः श्रीगमनं गजः परिमलस्ते पारिजातद्रुमः। वाणी कामदुधा कटाक्षलहरीसा कालकूटच्छटा, तत्किं चन्द्रमखि! त्वदर्थममरैरामन्थि दुग्धोदधिः॥
भावार्थ:-चन्द्र सदृश मुखवाली हे स्त्री ! तेरा मुख पूर्णिमा के चन्द्र सदृश है, तेरा अधर सुधा (अमृत) सदृश है, तेरे दांत मणिपंक्ति सदृश है, तेरी कान्ति लक्ष्मी सदृश है, तेरी गति (चाल) ऐरावत हस्ती सदृश है, तेरे श्वास की गंध पारिजातक वृक्ष तुल्य है, तेरी वाणी कामधेनु सदृश है और तेरे नेत्रों के कटाक्ष की लहर कालकूट विष की छटा तुल्य है (कामी पुरुषों को हत प्रहत करनेवाली है) अतः हे मुग्धा ! क्या तेरे लिये ही देवताओंने क्षीर समुद्र का मंथन किया था ? अर्थात् देवताओंने क्षीर समुद्र का मंथन कर