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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
पत्रे" (तुअर के पत्ते में लिपटा हुआ पत्र-इसका दूसरा अर्थ तुं-अरि अर्थात् तेरे शत्रु का पत्र याने कागज है।)
इस प्रकार सब गुढ़ार्थ से बतलाया किन्तु धर्मराजाने सरलता के कारण कुछ भी नहीं समझा । अन्त में आमराजा सभा से उठ धर्मराजा की वेश्या के घर गया और उसको अपना एक कंकण (कड़ा) रात्री भर रहने के लिए इनाम में दे कर प्रात:काल वहां से निकल दूसरा कंकण राजद्वारपाल को दे कर आमराजाने अपने नगर की ओर कूच कर दिया ।
दूसरे दिन राजसभा में जाकर गुरुने धर्मराज से कहा कि-हे राजा! हमारी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई है, अतः अब हम आमराजा के पास जायेंगे । यह सुन कर धर्मराजाने पूछा कि-हे गुरु ! आमराजा के बिना आये आप की प्रतिज्ञा क्यों कर पूर्ण हो गई ? इस पर गुरुने " आम स्वयं आया था" ऐसा कह कर सब गुह्य वाक्यों का दूसरा अर्थ राजा को समझाया । उसी समय वेश्या तथा द्वारपालने भी आकर आमराजा के नामांकित दोनों कंकण धर्मराजा के सामने रक्खें इस से धर्मराजा को उस बात का पूर्णतया विश्वास हो गया। धर्मराजाने गुरु से कहा कि-हे गुरु ! मैं कपट वचनों - १ धर्मराजा और आमराजा परस्पर शत्रु थे इसलिये उनके सामने ऐसे अन्योक्तियुत वचन कहे जाते थे परन्तु धर्मराज गूढ अर्थ नहीं समझता था ।