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व्याख्यान ३५:
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वर्तिष्यन्त इमे कथं कथमपि, स्वप्नेऽपि मैवं कृथाः ॥ श्रीमत्ते मणयो वयं यदि, भवल्लब्धप्रतिष्ठस्तदा । के श्रृंगारपरायणाः क्षितिभुजो,
मौलौ करिष्यन्ति न ॥१॥ ' भावार्थ:--हे आमराजा ! तेरा कल्याण हो ( यहां अन्योक्ति से राजा पर घटाते हैं) मणिये रोहणगिरि से कहती है कि-हे रोहणगिरि! तेरा कल्याण हो और तू इस बात की स्वप्न में ही चिन्ता न कर कि-मेरे से बिछुड़ी हुई ये मणिय अब कहां जायगी? इनकी क्या दशा होगी ? क्योंकि तेरे से प्रतिष्ठित हम श्रीमान् मणिये हैं अतः अलंकार के लालायित ऐसे कौन से राजा नहीं होंगे जो हमको उनके मुकुट पर धारण नहीं करेगें ? अर्थात् सब करेगें। (इस अन्योक्ति से आम राजा को सूरिने समझाया कि-तू इस बात की चिन्ता न करना कि-तेरे से जुदा होने पर हमारा क्या होगा? क्योंकि हम मणितुल्य हैं अतः हमको कई राजा सम्मानित करेगें आदि)।
वहां से विहार कर श्रीवप्पभट्टीमूरि गौड़देश में गये जहां धर्मराजा राज्य करता था । सूरि को आया हुआ सुन