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व्याख्यान १२ :
: ११९.
इत्यादि देशना सुनकर कंठीरव नामक प्रधान मंत्रीने प्रणामपूर्वक केवली को पूछा कि "हे भगवान ! भुवनतिलक राजकुमार को अणचिती दुःखप्राप्ति होने का क्या कारण है ? " केवली ने उत्तर दिया कि " धातकीखंड के भरतक्षेत्र में भवनागार नामक पुर में अपने पापसमूह का नाश करनेवाले कोई सूरि अपने गच्छ सहित पधारे । उन सूरि का एक वासव नामक शिष्य महात्माओं का शत्रुरूप था । वह निरन्तर दुर्विनयरूप समुद्र में निमग्न रहता था । एक वार उसको आचार्यने उपदेश दिया कि ' वत्स ! विनयगुण धारण कर । कहा भी है कि
विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥ १ ॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥२॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः, तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥३॥
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भावार्थ:- विनय का फल गुरु की सेवा करना है, गुरुसेवा से श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । ज्ञान के फल से विरति प्राप्त होती है, विरति के फलस्वरूप आश्रव का निरोध होता